शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

आधुनिक बनू या इन्सान

(यह सत्य है की हम जिस आधुनिक युग में जि रहें हैं उसका कोई जबाब नहीं एडवांस तकनीकियों ने हमारी जीवन शैली को बिलकुल फास्ट बना दिया है...और यहीं से हम एक भूल कर रहें हैं पश्चिमी सभ्यता को अपना कर ...हम नवीनता की आड़ में नग्नता की और बड रहें है...कुछ इसी सोच में यह रचना उभरी और भेज दिया अमर उजाला को प्रकाशित भी हुई...अब आपलोगों के सामने है..इंजॉय कीजिये और मेरी सोच पर अपनी राय दीजिये .......)

सोचता हूँ,

चाँद पर एक घर बनाऊंगा 
बैठुगा चाँद के पास और जी भर के बातें करूँगा
थोडा दुख तो होगा इस मोहजाल से निकलने में
पर क्या करूँ?
इन्सान अपनी इंसानियत ही भूल गया अपने आप को बदलने में



सोचता हूँ,
क्या थी ये दुनिया क्या होगई ?
आधुनिकता की आंधी में मानवता ही कहीं खो गई
एक आधुनिक मां ने शिशु को जन्म दिया
हद तो तब हो गई,
जब आधुनिकता ने शिशु से मां का हक़ भी छीन लिया



सोचता हूँ,
दया,छमा,उपकार फ़र्ज़ से इन्सान कितना दूर हो रहा है
आधुनिकता के आगे घुटने टेकने को मजबूर हो रहा है
जिंदगी के रफ्तार में, प्यार और रिस्तो की डोर टूट रही है

कौन है दोषि ?
अब तो प्रकृति भी हमसे रूठ रही है
इश क्रूर व्यवहार हो मैं सह नहीं पाऊंगा
सोचता हूँ,चाँद पर एक घर बनाऊंगा …
” रवि राजभर”
( ११.०९.२००९ को “अमर उजाला” के “आखर ” में प्रकाशित )

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