शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नव वर्ष मंगलमय हो

आप सभी ब्लॉगर बन्धुवों को नव वर्ष २०११ की हार्धिक सुभकामनाये !



गुरुवार, 4 नवंबर 2010

ये दिवाली कुछ कहती है .....



     आप सभी ब्लागर साथियों को इस दिवाली की बहुत-२ सुभकामनाये, आप सभी का भविष्य  भी दिवाली की तरह उज्जवल हो व जीवन खुशियों से  रोशन रहे.......! समय के   अभाव से हम   सभी ब्लॉगों पर नहीं आपाते इसके लिए आप सभी से हाथ जोड़कर क्षमा चाहेंगे !   यहाँ आज  मैं  कुछ क्षणिकाएं लिखने की कोशिस कर रहा  हूँ  आप अपनी     प्रतिकिर्या जरुर देवें !



    (१) दीप *
    अब इन्तेजार के दिये बुझने लगे हैं ....
    तेरी उम्मीदों के  नए  दिये  जला रहा हूँ आज ..
    तुमने ही तो कहा था ..
    तुम्हारे आंगन में अँधेरा बहुत  है !
   



 

    (२) पटाखे **
    ये दुनिया भी अजीब है ...
   धमाको पर ज्यादा ध्यान देती है !
   ठीक ही तो है ....
   दिल टूटने की आवाज जो नहीं होती !

 



    (३) मिठाई ***
      दिल को यकींन  था
      मोहब्बत में वफ़ा  मेलेगी ....
      पर ये क्या ?
      इसमें भी धोखा  मिलाया गया है ..!

    


  पर आप मिठाइयाँ खरीदने में बिलकुल न धोखा  खाइएगा .... इसी के साथ एक बार फिर से आप सभी को दिवाली के पावन पर्व की हार्दिक बधाई .........!

शनिवार, 24 जुलाई 2010

"तारीफ़ आप की"


खुशनसीब  होतें हैं वो
खुदा जिन्हें खुबसूरत बनाता है
सवारता है फुरसत भरे लम्हों में
किसी के प्यार की मूरत बनाता है
उनमे से एक आप भी हैं!
    
सूरज सी लाली दमक रही हो
जिसकी झील सी आँखों तले
सुर्ख होंठो की मुस्कान ऐसी
देख जिसे  गुलाब भी जले  
उनके नाजुक पाँव पड़े जिस पथ
वो अपने पर इतराता है
उनमे से एक आप भी हैं

कोरे कंगना कवारे सवारे कलाई
जिसकी रूह की महक से
ये वादियाँ गुनगुनाई
घनेरी जुल्फों की लहर
जैसे गंगा की आरती
मदहोस फिजाये भी
जिसके रूप को सवारतीं
उनमे से एक आप भी हैं!

सच में,
खुशनसीब होतें हैं वो...........!
 














शुक्रवार, 26 मार्च 2010

“तुम” और “मेरा समय“



ऐसा क्यों होता है जब तुम सामने होती हो?
तुम हँसती हो हँसता हूँ मै, रोता हूँ जब रोती हो
ऐसा क्यों होता है जब तुम सामने होती हो ?




देख के बुलबुल मुझको क्यों फुदुक-२ मुस्काये ?
बगीया में बैठी कोयल क्यों मीठी राग सुनाये ?
मै छुऊँ जिस कलि को क्यों छूते ही खिल जाये ?
बिन छुये छुईमुई की क्यों पत्तियां शरमाये ?
शरमाकर ये पत्तियां जाने क्या कहना चाहें ?
जब तुम आती हो
ऐसा क्यों होता है जब तुम सामने होती हो ?







हर सुबह सूर्य की किरने आ पहले मुझे जगाये
चन्दन सी शीतल हवा भी लगे मुझे ही छूना चाहे
सुबह सर्द शबनम की बूंदें मोती का सेज सजाये
देख तेरी मुस्कान सुबह की गुलाब भी शरमाये
शरमाकर कहता हो जैसे, अब तुमको क्या मेरी जरुरत ?
जब तुम मुस्कुराती हो
ऐसा क्यों होता है जब तुम सामने होती हो ?







फिर देख मुझे बुलबुल-कोयल क्यों डाल से उड़ जाये?
चन्दन सी शीतल हवा ही क्यों दिल में आग लगाये ?
फिर खिलखिलाती कलियाँ क्यों देख मुझे मुरझाये ?
मै भूलना चाहूँ तुझे पर हर पल तेरी याद दिलाएं
हर पल तेरी याद दिलाएं खुद रोयें मुझे रुलाएं
जब तुम चली जाती हो
ऐसा क्यों होता है जब तुम सामने होती हो ?

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

आधुनिक बनू या इन्सान

(यह सत्य है की हम जिस आधुनिक युग में जि रहें हैं उसका कोई जबाब नहीं एडवांस तकनीकियों ने हमारी जीवन शैली को बिलकुल फास्ट बना दिया है...और यहीं से हम एक भूल कर रहें हैं पश्चिमी सभ्यता को अपना कर ...हम नवीनता की आड़ में नग्नता की और बड रहें है...कुछ इसी सोच में यह रचना उभरी और भेज दिया अमर उजाला को प्रकाशित भी हुई...अब आपलोगों के सामने है..इंजॉय कीजिये और मेरी सोच पर अपनी राय दीजिये .......)

सोचता हूँ,

चाँद पर एक घर बनाऊंगा 
बैठुगा चाँद के पास और जी भर के बातें करूँगा
थोडा दुख तो होगा इस मोहजाल से निकलने में
पर क्या करूँ?
इन्सान अपनी इंसानियत ही भूल गया अपने आप को बदलने में



सोचता हूँ,
क्या थी ये दुनिया क्या होगई ?
आधुनिकता की आंधी में मानवता ही कहीं खो गई
एक आधुनिक मां ने शिशु को जन्म दिया
हद तो तब हो गई,
जब आधुनिकता ने शिशु से मां का हक़ भी छीन लिया



सोचता हूँ,
दया,छमा,उपकार फ़र्ज़ से इन्सान कितना दूर हो रहा है
आधुनिकता के आगे घुटने टेकने को मजबूर हो रहा है
जिंदगी के रफ्तार में, प्यार और रिस्तो की डोर टूट रही है

कौन है दोषि ?
अब तो प्रकृति भी हमसे रूठ रही है
इश क्रूर व्यवहार हो मैं सह नहीं पाऊंगा
सोचता हूँ,चाँद पर एक घर बनाऊंगा …
” रवि राजभर”
( ११.०९.२००९ को “अमर उजाला” के “आखर ” में प्रकाशित )

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

रुको तो जरा

 



इस   कदर   मुहब्बत-ए- इजहार   न   कर

मर जाऊ न मैं कहीं , इतना प्यार न कर

कल तक तो अपने प्यार का फतवा जारी करती थी 

आज वफ़ा की दहलीज पर आ कर इंकार न कर....इंकार  न कर  

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

रफ्तार

"यह रचना मैंने उन अभिभावकों के लिए रची थी जो समय पर अपने बच्चो का ध्यान नहीं देते !  और मैंने देखा है की देश का भविष्य कहे जाने वाले उन बच्चों का ही भविष्य भिगड़ जाता है .....यह मेरी सबसे पहली रचना है इसे मैं १०वी (Ten) में पढ़ रहा था तभी लिखा था...आशा है पिछली रचना की तरह आप इसे भी अपना प्यार देंगे .....मैं प्यार और मुहोब्बत की वजाय समाज और उसमे ब्याप्त बुराइओं पर लिखने में ज्यादा जोर देतां हूँ....रचना थोड़ी लम्बी है पर उम्मीद करता हूँ आपको पढने में असुबिधा नहीं होगी "




एक बार शहर के, एक चौराहे पर,

    मै भी खडा था लिए, रवि को वहीँ पर,
       दो नवयुवक आपस में, बतिया रहे थे,
        एक- दुसरे को रफ्तार के बारे में, समझा रहे थे,
          मुझको लगा ये , बातें कर रहें है बेकार,
            मुझे क्या लेना -देना इससे, क्या होती है रफ्तार






कुछ बच्चों को, बस से स्कूल जाता देखकर,
     बस मुझे क्यों नहीं ले जाती, पूछा रवि ने नाराज हो कर,
       बेटा उसके पापा , बड़े पैसे है कमाते,
          पर बेटा तुम क्यों,हो पछताते,
             चल बेटा जरा तेज चल , तुम भी तो हो स्कूल जाते,
                लेकिन मैंने दिया था, उसको झूठा दिलासा,
                  

 अभी वह बच्चा है , मेरी बातों में आ जाता,
    पर मैं क्या किसी के बाप से, कम था कमाता,
       रोज रात को साथ दोस्तों के, जाता था मैं मधुशाला,
          होती थी जम के मौज -मस्ती,था मेरा ही बोलबाला,
            मैं जवानी की गाड़ी पर , था इस कदर सवार,
              क्या था लेना देना मुझको, क्या होती है रफ्तार,






धीरे धीरे दिन गुजरे , रवि हुवा सयाना,
   बोला पापा और पढूंगा , पढ़कर बड़ा ऑफिसर बनूँगा,
     पर आये दिन तबियत मेरी, होती थी अब ख़राब,
        डॉक्टर बोला तेरी करनी है, तुने बहुत पि रखी शराब,
          अब मैं जो कमाता था , खुद का करता था उपचार,
            हो गई जिंदगी धीमी धीमी, ले नहीं पाई रफ्तार,






घर का बोझ पड़ा रवि पर, करने लगा नौकरी,
  अक्सर कहती थी माँ उसकी, आप गलती कर रहे है भारी,
     धीरे-धीरे दिन गुजरे, हुई मेरी और भी लाचारी,
       रवि की पूरी कमाई , खा जाती थी मेरी बीमारी,
         कभी नहीं किया मैंने, अपने पर जो विचार,
            मेरे पीछे खडा है, मेरा भरा पूरा परिवार,
             लगता था ख़त्म हुआ है सब, रुक गई मेरी रफ्तार,






घर आये दो नाती पोते कहते थे सुनो दादा जी
     बेटा मैं पढता तो होता एक ऑफिसर कहते है पापा जी
         क्या आपने उन्हें नहीं पढाया ?
              ऐसा क्यों कहते हैं पापा जी?
                सोचता कुछ करके दिखाऊ ,पर बुडापे ने कर लिया था गिरफ्तार
                   कास समझ पता मैं भी उन नवयुवकों की रफ्तार
                        खुशियाँ होती घर में मेरे शिक्षित होता मेरा परिवार.